दो नदियों के तट पर विराजी हैं मां दंतेश्वरी, जानें मंदिर का हजारों साल पुराना इतिहास

बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी दंतेवाड़ा में शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम तट पर विराजी हैं। दंतेश्वरी शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि माता सती का दांत यहां गिरा था, इसलिए यह पावन स्थल दंतेश्वरी शक्तिपीठ कहलाता है। मां दंतेश्वरी को विशेष अवसरों दशहरा एवं फाल्गुन मंड़ई के मौके पर गार्ड आफ आनर दिया जाता है और सम्मान में हर्ष फायर की पंरपरा निभाई जाती है। बस्तर संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से इस शक्तिपीठ की दूरी 84 किलोमीटर है। यहां साल में तीन नवरात्र मनाई जाती है। तीसरी नवरात्र फाल्गुन माह में पूरे 10 दिन आदिवासी समाज के लोग मनाते हैं। यहां मध्य भारत का सबसे बड़ा जोत कलश भवन बनाया जा रहा है। इतिहास मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना है। 705 साल पहले वारंगल से आए चालुक्य नरेश अन्नमदेव ने शक्तिपीठ का जीर्णोद्धार कराया था। वर्तमान में यह केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की देखरेख में है। शक्तिपीठ में प्रतिष्ठित मां दंतेश्वरी की मूर्ति जिस शिला में उकेरी गई है, उसके ठीक ऊपर नृसिंह भगवान की आकृति है। शक्तिपीठ के ठीक सामने गरुड़ स्तंभ स्थापित है। भगवान नृसिंह विष्णु अवतार हैं, इसलिए प्रति वर्ष दीपावली के दिन मां दंतेश्वरी की माता लक्ष्मी के रूप में विशेष पूजा होती है। मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ प्रक्षेत्र को आठ भैरव भाइयों का निवास स्थल माना जाता है। सन 1313 ईस्वी में अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बीजापुर होते हुए बारसूर पहुंचा था। उसने अंतिम नागवंशी नरेश हरिशचंद्र देव को पराजित कर 1314 में सिंहासन संभाला था। कुछ सालों बाद उसने बारसूर से अपनी राजधानी दंतेवाड़ा स्थानांतरित की और मां दंतेश्वरी देवी की मूर्ति लाकर दंतेवाड़ा शक्तिपीठ में स्थापित की। शक्तिपीठ में तीन शिलालेख और 56 प्रतिमाएं हैं। देवी मंदिरों में आमतौर पर चैत्र और क्वांर महीने में नवरात्र मनाई जाती है, किंतु दंतेश्वरी शक्तिपीठ में फागुन मड़ई के नाम से तीसरी नवरात्र होती है। इसे आखेट नवरात्र कहा जाता है। देवी के नौ रूपों के सम्मान में नौ दिन माईजी की डोली निकाली जाती है। इस मौके पर 600 से ज्यादा गांवों के देवी-देवता शक्तिपीठ में आमंत्रित किए जाते हैं। बस्तर दशहरा में शामिल होने को मां दंतेश्वरी की डोली जगदलपुर आती है। यह पर्व माता को समर्पित है, इसलिए रावण वध की पंरपरा नहीं है। माता सती का अधोदंत (निचला दांत) डंकिनी और शंखिनी नदी के संगमतट पर गिरा था, इसलिए यहां देश का 51 वां शक्तिपीठ स्थापित है। मां दंतेश्वरी बस्तर राजपरिवार की ही नहीं, अपितु संपूर्ण बस्तरवासियों की आराध्य देवी हैं। सच्चे दिल से की गई प्रार्थना माता जरूर पूरी करती हैं। दंतेश्वरी शक्तिपीठ में प्रतिवर्ष वासंती और शारदीय नवरात्र के अलावा 10 दिवसीय आखेट नवरात्र भी मनाया जाता है। इसे फागुन मड़ई भी कहते हैं। इस महापर्व में लगभग छह सौ गांवों के देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है। वैसे तो यहां पूरे साल भक्तों का आना-जाना लगा रहा है पर चैत्र, क्वांर नवरात्र और फागुन मंडई में हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है।

दो नदियों के तट पर विराजी हैं मां दंतेश्वरी, जानें मंदिर का हजारों साल पुराना इतिहास
बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी दंतेवाड़ा में शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम तट पर विराजी हैं। दंतेश्वरी शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि माता सती का दांत यहां गिरा था, इसलिए यह पावन स्थल दंतेश्वरी शक्तिपीठ कहलाता है। मां दंतेश्वरी को विशेष अवसरों दशहरा एवं फाल्गुन मंड़ई के मौके पर गार्ड आफ आनर दिया जाता है और सम्मान में हर्ष फायर की पंरपरा निभाई जाती है। बस्तर संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से इस शक्तिपीठ की दूरी 84 किलोमीटर है। यहां साल में तीन नवरात्र मनाई जाती है। तीसरी नवरात्र फाल्गुन माह में पूरे 10 दिन आदिवासी समाज के लोग मनाते हैं। यहां मध्य भारत का सबसे बड़ा जोत कलश भवन बनाया जा रहा है। इतिहास मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना है। 705 साल पहले वारंगल से आए चालुक्य नरेश अन्नमदेव ने शक्तिपीठ का जीर्णोद्धार कराया था। वर्तमान में यह केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की देखरेख में है। शक्तिपीठ में प्रतिष्ठित मां दंतेश्वरी की मूर्ति जिस शिला में उकेरी गई है, उसके ठीक ऊपर नृसिंह भगवान की आकृति है। शक्तिपीठ के ठीक सामने गरुड़ स्तंभ स्थापित है। भगवान नृसिंह विष्णु अवतार हैं, इसलिए प्रति वर्ष दीपावली के दिन मां दंतेश्वरी की माता लक्ष्मी के रूप में विशेष पूजा होती है। मां दंतेश्वरी शक्तिपीठ प्रक्षेत्र को आठ भैरव भाइयों का निवास स्थल माना जाता है। सन 1313 ईस्वी में अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बीजापुर होते हुए बारसूर पहुंचा था। उसने अंतिम नागवंशी नरेश हरिशचंद्र देव को पराजित कर 1314 में सिंहासन संभाला था। कुछ सालों बाद उसने बारसूर से अपनी राजधानी दंतेवाड़ा स्थानांतरित की और मां दंतेश्वरी देवी की मूर्ति लाकर दंतेवाड़ा शक्तिपीठ में स्थापित की। शक्तिपीठ में तीन शिलालेख और 56 प्रतिमाएं हैं। देवी मंदिरों में आमतौर पर चैत्र और क्वांर महीने में नवरात्र मनाई जाती है, किंतु दंतेश्वरी शक्तिपीठ में फागुन मड़ई के नाम से तीसरी नवरात्र होती है। इसे आखेट नवरात्र कहा जाता है। देवी के नौ रूपों के सम्मान में नौ दिन माईजी की डोली निकाली जाती है। इस मौके पर 600 से ज्यादा गांवों के देवी-देवता शक्तिपीठ में आमंत्रित किए जाते हैं। बस्तर दशहरा में शामिल होने को मां दंतेश्वरी की डोली जगदलपुर आती है। यह पर्व माता को समर्पित है, इसलिए रावण वध की पंरपरा नहीं है। माता सती का अधोदंत (निचला दांत) डंकिनी और शंखिनी नदी के संगमतट पर गिरा था, इसलिए यहां देश का 51 वां शक्तिपीठ स्थापित है। मां दंतेश्वरी बस्तर राजपरिवार की ही नहीं, अपितु संपूर्ण बस्तरवासियों की आराध्य देवी हैं। सच्चे दिल से की गई प्रार्थना माता जरूर पूरी करती हैं। दंतेश्वरी शक्तिपीठ में प्रतिवर्ष वासंती और शारदीय नवरात्र के अलावा 10 दिवसीय आखेट नवरात्र भी मनाया जाता है। इसे फागुन मड़ई भी कहते हैं। इस महापर्व में लगभग छह सौ गांवों के देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है। वैसे तो यहां पूरे साल भक्तों का आना-जाना लगा रहा है पर चैत्र, क्वांर नवरात्र और फागुन मंडई में हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है।